Suresh's blog

मेरे पिताजी को 27 मार्च से बुखार, बदन दर्द की तकलीफ हुई। 2-3 दिनों तक घरेलू उपचार किया पर कोई लाभ नहीं हूआ।कोरोना के कारण डाक्टर तक जाने में परेशानी से बचने के लिए हम घर पर ही उनका इलाज कर रहे थे तकलीफ बढने से चिंतित होकर 29 मार्च को राँची के एक वरिष्ठ फिजिसियन को दिखया। उन्होंने काफी हाई एंटीबायोटिक के इन्जेक्शन और 3-4 अन्य दवाएं लिख दी और कोरोना की जाँच करवाने की सलाह दी। इस इलाज से भी बुखार नही गया। कोरोना जांच में पापा के साथ परिवार के बाकी सदस्यों की रिपोर्ट पॉजिटिव आई। इसी बीच मुझे capsule Viromune के बारे में पता चला। इस दवा को डाक्टर सुरेश कुमार अग्रवाल ने बनाया है । मै पहले कभी इनसे मिली भी नही थी। मैं अपने हसबैंड अमित अग्रवाल के साथ 4 अप्रैल को ही सबकी रिपोर्ट लेकर डॉक्टर साहब के घर पहुंची। डाक्टर साहब ने बताया कि cap VIROMUNE 7 वनौषधियों और यशद (जिंक) को मिलाकर बनाया गया है। इन सभी आठों औषधियां में अनेक प्रकार के वायरल इन्फेक्शन को रोकने, उनको नियंत्रित करने के साथ साथ इम्युनिटी बढाने के गुण हैं । सबने 5 तारीख को ही ये कैपसूल मंगाकर डाक्टर अग्रवाल की सलाह से 2-2 कैप्सूल रोज लेना प्रारंभ कर दिया । 13 .04.2021को सभी ने पुनः कोरोना की जाँच करवाई और सबकी रिपोर्ट निगेटिव आई है । आप में से अगर कोई देखना चाहे तो सारी रिपोर्ट भेज दूंगी प्रमाण के लिए। मेरे पापा की हालत भी अब स्थिर है। इन सबके लिए मैं तहे दिल से डॉक्टर साहब की शुक्रगुजार हूं और चाहती हूं कोरोना की इस भयावह घड़ी में सबको viromune के बारे में ज्यादा से ज्यादा पता चले???? संगीता अमित अग्रवाल Kanke road Ranchi
How corona virus enters and infects



मंडूकपर्णी भारत ही नहीं, विश्व के अनेक देशो में सैकड़ों वर्षों में उपयोग में लाया जाने वाला वनस्पति है। यह एक लता है, जो भूमि पर तैजी से फैलता है और पानी की प्रचुरता में बारहों महीने हरी-भरी रहती है। यह अक्सर तालाब या खेत के किनारे पायी जाती है। गुर्दे के आकार के इसके पत्ते आधे से दो इंच के होते हैं। पत्तियों के किनारे गोल दांतेदार होते हैं। फूल और फल अत्यंत छोटे एवं इसके बीज चपटे होते हैं। झारखंड में इसे बेंग साग के नाम से अक्सर बाजारों में बिकते हुए देखा जा सकता है। स्थानीय आदिवासी इसका सेवन हरे साग के रूप में करते हैं।

 

मंडूकपर्णी लगाने के लिए उपयुक्त स्थान, विधि एवं देखभालः

मंडूकपर्णी को अधिक पानी वाले स्थानों या नमी वाली मिट्टी में आसानी से लगाया जा सकता है। इसलिए इसे बगीचे में नल या कुएं के पानी के निकास की नालियों के आस-पास लगाना उपयुक्त होता है। इसे गमले में भी लगाया जा सकता है, लेकिन गमले से औषधीय उपयोग के लिए पर्याप्त मात्रा में इसे प्राप्त नहीं किया जा सकता है।

 

आधुनिक स्वास्थ्य वैज्ञानिकों का मतः

मंडूकपर्णी पर स्वास्थ्य वैज्ञानिकों ने अनेक अध्ययन कर यह पाया है कि इसमें शरीर की प्रतिरोधक शक्ति (इम्युनिटी) को बढ़ाने के गुण हैं। कुष्ठ रोग, अनेक प्रकार के चर्म रोग, मस्तिष्क रोग, आंव आदि में इसके लाभकारी होने के निश्चित प्रमाण मिले हैं।

 

चर्म रोगों के इलाज में प्रभावीः

चर्म रोगों में मंडूकपर्णी के ताजा पत्तों या इसका शुष्क चूर्ण खाने के साथ-साथ इसके रस या इससे बने तेल को लगाने से भी अधिक लाभ होता है।

 

पेट के रोग में उपचार में सहायकः

आंव या कफ के साथ साथ मल, बार-बार पैखाना, पेट साफ न रहने पर गैस की शिकायत, कभी-कभी सिर में दर्द होने जैसी शिकायतों में इसके पत्ते का रस तीन-चार चम्मच गाय के दूध के साथ मिलाकर पीना चाहिए।

 

पसीने की दुर्गंध करता है दूरः

पसीने के दुर्गंध में इसके पत्तों का रस पांच-छह चम्मच थोड़ा सा गर्म कर दूध के साथ थोड़ी सी चीनी मिलाकर दो माह तक पीने से परेशानी दूर हो जाती है

 

बच्चों की बोली न निकल पा रही हो तो मंडूकपर्णी खिलायें

 बच्चों में अक्सर यह शिकायत पायी जाती है। कई बार बच्चों की बोली निकलने में देर होती है या बोली साफ-साफ नहीं निकलती है तो इसके पत्ते का एक चम्मच रस गर्म कर लें और ठंडा होने के बाद इसमें 25-30 बूंद मधु मिलाकर ठंडे दूध के साथ पिलायें तो यह समस्या दूर हो जाती है।

 

अनिद्रा का भी करता है उपचारः

मंडूकपर्णी के दस पत्तों को गाय के दूध के साथ मिलाकर एक सप्ताह तक सेवन करें। इससे अनिद्रा की शिकायत दूर हो जाती है।

 

कुष्ठ के उपचार में भी है लाभदायीः

कुष्ठ रोग की प्रारंभिक अवस्था में मंडूकपर्णी के दस-पंद्रह ताजा पत्ते सुबह खाली पेट चबाकर प्रतिदिन खाने से दो-तीन माह में कुष्ठ रोग वाली त्वचा का रंग स्वाभाविक हो जाता है और लामा (बाल) पुनः उग आते हैं। तीन से छह महीने तक इसके उपयोग से रोग से पूर्ण मुक्ति मिलती है। ताजा पत्ती न मिलने पर छाया में सुखाये हुए पंचांग का चूर्ण 500 मिलिग्राम ले सकते हैं।

 

इन बीमारियों के इलाज में है लाभकारीः

·         आंव

·         कुष्ठ रोग

·         हिस्टिरिया, उन्माद

·         चर्म रोग

·         पतला दस्त (डायरिया)

·         अनिद्रा

·         मंद बुद्धि

·         एलर्जी

वासक या अडूसा भारत के प्रायः सभी क्षेत्रों में पाया जाता है। अडूसा बारहों महीने हरा-भरा रहनेवाला एक झाड़ीनुमा पौधा है। यह पुराना होने पर आठ से दस फीट तक बढ़ सकता है। इसकी गहरी हरे हरे रंग की पत्तियां चार से आठ इंच लंबी और एक से तीन इंच तक चौड़ी होती हैं। शरद ऋतु में इसके अग्र भागों के गुच्छों में हल्का गुलाबीपन लिये सफेद रंग के फूल खिलते हैं।

 

वासक लगाने के लिए उपयुक्त स्थान, विधि एवं देखभालः

वासक के पौधे डाल काटकर हर प्रकार की मिट्टी में आसानी से लगाये जा सकते हैं। इसे पशु नहीं खाते, इसलिए इसे बगीचे की बाड़ या घरों की चहारदीवारी के बाहर भी लगाया जा सकता है। जमीन में लगाये गये पौधे की जड़ें स्थापित होने के बाद इसमें सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती, पर गमले में लगाये गये पौधों में नियमित जल देना आवश्यक है।

 

आधुनिक स्वास्थ्य वैज्ञानिकों का मतः

वासक के विषय में पिछले चार दशकों में किये गये सैकड़ों शोध कार्यों से यह सिद्ध हो चुका है कि वासक में पाये जाने वाले विभिन्न रसायन मुख्यतः श्वास तंत्र पर लाभकारी असर डालते हैं। ये कफ को पतला करते हैं, श्वास नली के संकुचन को दूर करते हैं और टी.बी. के किटाणुओं को नष्ट करने में मदद करते हैं।

 

दवा के रूप में उपयोगी पौधे के अंशः

मुख्यतः इसके पत्तों और नरम डालियों का औषधीय प्रयोग किया जाता है। इसके फूल और इसकी जड़ें भी अनेक रोगों में उपयोगी हैं।

 

खांसी हो तो अत्यंत उपयोगी है वासकः

वासक के ताजे पत्तों का रस दो चाय चम्मच (लगभग 10 ग्राम) शहद या गुड़ (पांच ग्राम) में मिलाकर दिन में दो बार पिलाने से पांच-छह दिनों में ही गाढ़ा कफ पतला होकर निकल जाता है, जिसके फलस्वरूप खांसी कम हो जाती है।

एक तरीका यह भी है कि इसके छह-आठ पत्ते पांच ग्राम अदरख, आठ-दस गोल मिर्च का चूर्ण मिलाकर दो कप पानी में उबालें। पानी जब आधा कप रह जाये तो इसे आवश्यकतानुसार चीनी या गुड़ के साथ मिलाकर भी सुबह-शाम लिया जा सकता है। वासक का गुलकंद भी तैयार किया जाता है। इसका तरीका यह है कि वासक-अडूसा की ताजा कोमल पत्तियों को दोगुनी मात्रा में दानेदार चीनी के साथ मिलाकर चौड़े मुंह के कांच के बर्तन में तीन हफ्तों तक धूप में रखने से गुलकंद बनकर तैयार हो जाता है। इसकी पांच से दस ग्राम मात्रा सुबह-शाम सेवन करने से भी खांसी दूर हो जाती है।

 

दमा के इलाज में उपयोगीः

वासक के सूखे पत्ते का चुरूट या बीड़ी बनाकर या फिर हुक्का या चिलम में डालकर उसका धुआं पीने से सांस का कष्ट कम होता है।

 

बहते खून को रोकता हैः

अगर शरीर के किसी हिस्से से खून बह रहा हो तो वासक छाल और पत्ते (10-11 ग्राम) को एक साथ उबालकर उस क्वाथ को चीनी या मिश्री मिलाकर पीने से खून बहना बंद होता है।

 

बवासीर में भी देता है आरामः

वासक के पत्ते को पीसकर थोड़ा गर्म कर पोटली बांध मलद्वार में सेंक देने से दर्द और सूजन दोनों में आराम मिलता है।

 

इन बीमारियों के इलाज में उपयोगी है वासकः

·         हरेक प्रकार की खांसी

·         ब्रोंकाइटिस

·         पसीने की दुर्गंध

·         ज्वर

·         आंख आने पर

·         दमा

·         यक्ष्मा (टी.बी.)

·         बवासीर

·         पीलिया

·         चर्म रोग

 

 

 

 

 

 

शतावर आयुर्वेद की रसायन जड़ी-बूटियों में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह भारत के सभी राज्यों के जंगल में, हिमालय की चार हजार फुट की ऊंचाइयों तक बहुतायत में पायी जाती है। झारखंड के जंगलों में भी यह अच्छा मात्रा में उपलब्ध है। इसके बेलनुमा ऊपर चढ़नेवाली लताएं कांटेदार होती हैं। इसकी शाखाएं-प्रशाखाएं चारों ओर फैली होती हैं। इसके छोटे-छोटे हरे नुकीले सुंदर पत्तों के कारण इसे गमलों में सौंदर्य के लिए भी लगाया जाता है। अक्टूबर माह में शतावर के पत्ते झड़ जाते हैं और छोटे-छोटे सफेद मीठी सुगंध वाले फूल निकलते हैं। शतावर में गोलमिर्च के समान हरे फल लगते हैं, जो पकने पर लाल रंग के हो जाते हैं।

 

शतावर लगाने के लिए उपयुक्त स्थान, विधि एवं देखभालः

शतावर के पौधे बीजों से या फिर पुराने पौधे को जड़ से अलग कर लगाये जा सकते हैं। इसे बगीचे में, दीवार के किनारे या खिड़कियों के बाहर लगाकर सहारे से ऊपर बढ़ान चाहिए। इसे रोपते समय मिट्टी को हल्का ढीला कर थोड़ा गोबर के पुराने खाद मिला देने से इसकी जडें तेजी से बढ़ती हैं और इसकी नियमित सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती।

 

आधुनिक स्वास्थ्य वैज्ञानिकों का मतः

शतावर के बारे में पिछले चार दशकों के दौरान किये गये अध्ययनों से यह प्रमाणित हुआ है कि इसमें शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के गुण हैं। इसके प्रयोग से वीर्य मे पुरुष शुक्राणुओं (स्पर्म)  की संख्या में भी वृद्धि होती है। इसके अलावा मां के दूध में वृद्धि और प्रदर में भी इसके लाभकारी प्रभावों की पुष्टि हुई है।

 

मां के दूध की कमी दूर करता है शतावरः

शतावर की ताजा जड़ लगभग 20 ग्राम या सूखी जड़ों का चूर्ण 10 ग्राम दो कप दूध में पकाकर सुबह-शाम पिलाने से सात से दस दिनों में मां के दूध की मात्रा में वृद्धि होती है।

 

श्वेत प्रदर का इलाजः

 शतावर की ताजा या सूखी जड़ों का चूर्ण 5 से 10 ग्राम 10 ग्राम जीरे के चूर्ण में मिलाकर एक कप दूध के साथ सुबह खाली पेट पिलाने से कमजोरी या तनाव के कारण होने वाला श्वेत प्रदर दो-तीन हफ्तों में ठीक हो जाता है।

 

शुक्राणुओं की कमी दूर करता है शतावरः

पांच से दस ग्राम शतावर की जड़ों का चूर्ण एक पाव दूध में अच्छी तरह उबालकर सुबह-शाम दो-तीन माह तक लेने से शुक्राणुओं की संख्या में वृद्धि होती है।

 

काम क्रीड़ा के प्रति उदासीनता का इलाजः

मानसिक तनाव या चिंता होने से  शुक्राणुओं की संख्या में कमी होने से काम क्रीड़ा के प्रति जो उदासीनता आती है, उसे दूर करने के लिए ऊपर बतायी गयी विधि से शतावर का सेवन करना चाहिए। यह अत्यंत प्रभावकारी है।

 

खूनी आंव में राहतः

शतावर की कच्ची जड़ों का रस उम्र के अनुसार दो-चार चम्मच सुबह-शाम पिलाने से मल में खून के साथ आंव आना बंद हो जाता है।

 

अनिद्रा करता है दूरः

पांच ग्राम शतावर चूर्ण के साथ दूध और चावल की खीर बनाकर सुबह-शाम खाने से नींद न आने की शिकायत दूर हो जाती है।

 

रतौंधी में भी है उपयोगीः

शतावर के पत्ते गाय के घी में तलकर कुछ दिन सेवन करने से रतौंधी की समस्या में लाभ होता है।

 

इन बीमारियों के इलाज में उपयोगी है शतावर-

·         श्वेत प्रदर

·         खूनी आंव

·         वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या में कमी (ओलिगो-स्पर्मिया)

·         पेशाब में खून आने पर

·         माताओं में दूध की कमी

·         अनिद्रा

·         कमजोरी

·         मिर्गी

·         काम क्रीड में उदासीनता

·         रतौंधी (नाइट ब्लाइंडनेस)

 

 

हरश्रृंगार एक 15 से 20 फूट ऊंचा वृक्ष है, जो लगभग पूरे साल हरा-भरा रहता है। इसके पेड़े स्वाभाविक रूप से प्रायः सभी राज्यों में पाये जाते हैं। मनमोहक सुगंधित फूलों के कारण इसे आम तौर पर घर के बगीचे में भी लगाते हैं। इसकी पत्तियां दो से तीन इंच लंबी, एक-दो इंच चौड़ी लगभग हृदयाकार नुकीली और अत्यधिक रुखड़ी सतह वाली होती है, जिसके किनारे दांतेदार कटे हुए होते हैं। हरश्रृंगार की नारंगी पीली डंडियों वाले सफेद सुगंधित फूल गुच्छों में लगते हैं। इसके फूल शाम को और रात में खिलते हैं और सुबह सूर्योदय के पहले झड़ जाते हैं। फूल जुलाई-अगस्त से प्रारंभ होकर जाड़े तक लगते हैं। फल गर्मी के आरंभ में पककर तैयार हो जाते हैं। इसके फूलों से सुगंधित तेल और फूल की डंडियों से नारंगी रंग प्राप्त किया जाता है।

 

हरश्रृंगार लगाने के लिए उपयुक्त स्थान, विधि एवं देखभालः

हरश्रृंगार के पेड़ इसके बीजों को बोकर तैयार किये जाते हैं। बीजों से पौधे तैयार करने में लगभग 4 से 6 सप्ताह का वक्त लगता है। हरश्रृंगार के पेड़ लगभग हर प्रकार की मिट्टी में लगाये जा सकते हैं। एक वर्ष तक पौधे की देखभाल करने से ये तेजी से बढ़ते हैं, जिसके बाद इसे किसी विशेष सिंचाई की जरूरत नहीं होती।

 

दवा के लिए पौधे के उपयोगी अंगः

मुख्यतः इसके छाल और पत्ते का औषधीय प्रयोग होता है। कहीं-कहीं बीजों का भी इस्तेमाल किया जाता है।

 

आधुनिक स्वास्थ्य वैज्ञानिकों का मतः

केंद्रीय औषधि अनुसंधान केंद्र, लखनऊ में हुए अनुसंधानों से पता चला है कि हरश्रृंगार के पत्तों में पाये जानेवाले रसायन काला जार के कीटाणुओं को मारने में सक्षम हैं। इसके साथ ही रोग प्रतिरोधक शक्ति पर भी इसके लाभकारी प्रभाव हैं।

 

काढ़ा पीकर दूर भगायें साइटिकाः

 हरश्रृंगार के आठ-दस ताजा पत्ते लेकर उन्हें धो लें और फिर चूरकर दो कप पानी में डालकर उबालें। आधा कप पानी रह जाने पर उतार लें। इसे छानकर सुबह-शाम खाली पेट पीयें। स्वाद के लिए इसमें थोड़ा गुड़ या चीनी मिलाया जा सकता है। इससे साइटिका का दर्द दूर होता है।

 

मचोड़ के साथ आंव हो रहा हो तो करें इसका उपयोगः

हरश्रृंगार के ताजा पत्ते का रस दो चम्मच थोड़ी अजवाइन के साथ हल्का गर्म करके सुबह-शाम लेने से दो-तीन दिनों में ही मचोड़ बंद हो जाता है और आंव गिरना ठीक हो जाता है। अधिक समय तक लाभ के लिए इसे सात दिनों तक लेना चाहिए।

 

मोटापा या चर्बी करने में उपयोगः

 हरश्रृंगार के पेड़ की छाल का चूर्ण एक से पांच ग्राम मात्रा सुबह-शाम गर्म पानी के साथ लेने से दो माह में चर्बी घट जायेगी।

 

बुखार का इलाजः

हरश्रृंगार के ताजा पत्तों का रस दो चम्मच निकालकर लोहे के बर्तन में थोड़ा गर्म करें। इसे सुबह-शाम पिलाने से आठ से दस दिनों में पुराना बुखार ठीक हो जाता है।

 

बालों में रूसी की समस्या का निदानः

हरश्रृंगार के कच्चे बीजों को पीसकर इसे नारियल तेल में पका लें। इस तेल के निरंतर व्यवहार से 10-15 दिनों में रूसी कम हो जाती है और इसकी वजह से बालों का झड़ना बंद हो जाता है।

 

इन बीमारियों में उपयोगी है हरश्रृंगारः

·         साइटिका

·         आंव (अमीबिएसीस)

·         चर्बी बढ़ने पर (मोटापा)

·         बालों की रूसी

·         बुखार

·         पेट के जोंक या कृमि

·         कालाजार

·         खांसी

·         हाइपोथाइरायड

·          

भूंई आंवला एक अत्यंत उपयोगी पौधा है। इसके पौध बरसात के मौसम में यत्र-तत्र स्वयं जम जाते हैं। भूंई आंवला के पौध 10-25 इंच ऊंचे, अनेक शाखाओं वाले होते हैं।  इसकी पत्तियां आकार में आंवले की पत्तियों जैसी और हल्के हरे रंग की होती हैं। पत्तियों की निचली सतह पर छोटे-छोटे गोल फलों की कतार होती है। भूंई आंवला  के पौध जाड़े की शुरुआत होते-होते पक जाते हैं और इसके फल एवं बीज झड़ जाते हैं। फिर ये पौध स्वतः समाप्त हो जाते हैं।

 

भूंई आंवला लगाने के लिए उपयुक्त स्थान, विधि एवं देखभालः

चूंकि भूंई आंवला के पौधे बहुतायत में स्वतः यत्र-तत्र उग जाते हैं और कुछ महीने में ही समाप्त हो जाते हैं। इसे बगीचे में लगाने की कोई उपयोगिता नहीं है।

 

दवा के लिए उपयोगी अंशः

पौधे का पंचांग यानी इसका हर हिस्सा औषधीय गुण वाला है।

 

आधुनिक स्वास्थ्य वैज्ञानिकों का मतः

भूंई आंवला के संबंध में पिछले 15 वर्षों में अनेक अनुसंधान हुए हैं। नोबेल पुरस्कार विजेता प्रसिद्ध चिकित्सा वैज्ञानिक ब्लूमबर्ग और भारत के वैज्ञानिक थ्याग राजन के अनुसंधान कर इसे वायरल हेपेटाइटिस ए एवं बी की चिकित्सा में निश्चित लाभकारी होने के प्रमाण दिये हैं।

 

पीलिया (वायरस जांडिस) के इलाज में बेहद उपयोगीः

भूंई आंवला के पूरे पौधे को थोड़ा पानी मिलाकर पीस लें, फिर इसे छान लें। दो-तीन चम्मच रस दिन में दो-तीन बार पिलायें। इसमें थोड़ी चीनी या दूध भी मिलाया जा सकता है। पांच-सात दिन में रोगी का पीलाकन समाप्त या कम हो जायेगा। भूख लगने लगेगी। हेपेटाइटिस बी के कारण पीलिया में इसका उपयोग कालमेघ, मंडूकपर्णी और पुनर्नवा के साथ दो माह तक करना चाहिए।

 

पेशाब की जलन करता है दूरः

कभी-कभी पेशाब नली (यूरेथ्रा) में सूजन हो जाने से पेशाब के समय दर्द और जलन होता है। ऐसी स्थिति में भूंई आंवले का पूरा पौध या केवल इसकी जड़ों को अरवा चावल धोया हुआ पानी के साथ पीसकर एक कप छान दें और दिन में दो बार पिलायें। कुछ ही दिनों में पेशाब नली का सूजन कम हो जायेगा। जलन और दर्द भी खत्म हो जायेगा।

 

श्वेत प्रदर के इलाज में उपयोगीः

यदि श्वेत प्रदर में बदबू होती हो, कपड़ों पर दाग लग जाते हों तो ताजा भूंई आंवला का रस तीन-चार चम्मच या इसका चूर्ण तीन से पांच ग्राम प्रतिदिन सुबह –शाम दूध या पानी के साथ 15-20 दिन पिलाने से फायदा होता है।

 

खुजली एवं फोड़े-फुंसी के इलाज में गुणकारीः

भूंई आंवला के पूरे पौधे को नमक के साथ पीसकर रोगग्रस्त भाग में लगाने और दो चम्मच सुबह-शाम पिलाने से खुजली बंद हो जाती है। यहां तक कि फोड़ों से मवाद बाहर आ जाता है और फोड़े सूख जाते हैं।

 

इन रोगों के इलाज में है उपयोगी

पीलिया

भूख न लगना

खुजली

श्वेत प्रदर

पेशाब की जलन

जी मिचलाना, बदहजमी

फोड़ा-फुंसी

पुनर्नवा आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान की एक महत्वपूर्ण वनौषधि है। पुनर्नवा के जमीन पर फैलने वाली छोटी लताओं जैसे पौधे बरसात में परती जमीन पर, कूड़े के ढेर पर, सड़कों के किनारे जहां-तहां स्वयं उग आते हैं। गर्मियों में यह प्रायः सूख जाते हैं, पर वर्षा में पुनः इसकी जड़ों से शाखाएं निकलती हैं। पुनर्नवा का पौधा अनेक वर्षों तक जीवित रहता है। पुनर्नवा की पत्तियां 1-1.25 इंच लंबी, 0.75-1 इंच चौड़ी मोटी मांसल और लालिमा लिये हरे रंग की होती है। फूल छोटे-छोटे गुलाबी रंग के होते हैं। पुनर्नवा के पत्ते और इसकी कोमल शाखाओं को हरी साग के रूप में खाया जाता है। इसे स्थानीय लोग खपरा साग के नाम से जानते हैं।

 

पुनर्नवा लगाने के लिए उपयुक्त स्थान, विधि एवं देखभालः

 चूंकि पुनर्नवा यत्र-तत्र प्रचुर मात्रा में स्वयं उपलब्ध है, इसलिए इसे बगीचे में लगाने या इसकी देखभाल की जरूरत नहीं है।

 

दवा के रूप में इसका उपयोगः

इस पौधे की जड़, तना, पत्ती, फूल और फल- ये पांचों हिस्से दवा के काम में आते हैं।

 

आधुनिक स्वास्थ्य वैज्ञानिकों का मतः

वैज्ञानिक परीक्षणों और रोगियों पर प्रयोग से पता चलता है कि पुनर्नला में मूत्रल डाययूरेटिक गुण है। इसलिए, शरीर में किन्हीं कारणों से अतिरिक्त जल संचय के कारण होनेवाली सूजन, फूलने इत्यादि में इसका प्रयोग अत्यंत लाभदायक है। पुनर्नवा की जड़ों के चूर्ण का प्रयोग निम्न रक्तचाप की चिकित्सा में भी प्रभावशाली है।

 

शरीर में सूजन होने पर पुनर्नवा की मदद से उपचारः

अनेक कारणों से पर्याप्त पानी पीने के बाद भी पेशाब कम होता है। ऐसे में शरीर में अतिरिक्त पानी जमा होने के कारण शरीर में सूजन हो जाती है। ऐसी स्थिति में ताजा पुनर्नवा के पत्तों और शाखाओं का रस दो से तीन चम्मच दिन में दो बार हल्के गर्म पानी के साथ लेने से कुछ दिनों में अतिरिक्त पानी निकल जाता है और सूजन कम हो जाता है। ताजा न मिलने पर पुनर्नवा का सुखाया हुआ पंचांग 5 से 15 ग्राम दो कप पानी में उबाल लें। पानी जब एक कप रह जाये तो इसे छान लें। इसमें सोंठ का चूर्ण मिलाकर सुबह-शाम प्रयोग करें।

 

निम्न रक्तचाप में उपयोगः

पुनर्नवा की जड़ का चूर्ण आधा ग्राम सुबह-शाम शहद के साथ 10 दिनों तक लेने से रक्तचाप स्वाभाविक हो जाता है।

हृदय का भारीपन या धड़कन बढ़ने पर उपयोगः कभी-कभी घबराहट, चिंता इत्यादि मानसिक कारणों से हृदय में भारीपन महसूस होता है या अचानक धड़कन बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में पुनर्नवा का स्वरस दो चम्मच सुबह-शाम लेने से लाभ होता है।

 

प्रसव के बाद कमजोरी, रक्त की कमी एनीमिया या सूजन में उपयोगः

ऐसी स्थिति में भी पुनर्नवा उपयोगी है। ऊपर बतायी गयी विधि से पुनर्नवा के पंचांग का क्वाथ या स्वरस एक माह तक प्रयोग करने से लाभ होता है। पुनर्नवा की सुखाई हुई जड़ का चूर्ण 250 मिलीग्राम दो चुटकी सुबह-शाम दूध के साथ लेने से भी आराम होता है।

 

दूषित घाव का इलाजः

पुनर्नवा के पंचांग को पानी में अच्छी तरह उबाल कर उस पानी से घाव को धोना चाहिए और इसके साथ ही पुनर्नवा की जड़ को पीसकर दही के पानी के साथ घाव में लगाने से कुछ ही दिनों में यह ठीक हो जाता है।

 

इन रोगों के उपचार में है उपयोगी

·         पूरे शरीर का फूलना- सूजन

·         वक्रशोथ

·         हृदय का भारीपन

·         निम्न रक्तचाप

·         प्रसव के बाद खून की कमी, कमजोरी

·         प्रसव के बाद शोथ, सूजन

·         काला जार

·         बुखार

·         खांसी

·         कुष्ठ रोग

·         शरीर का दर्द

·         आंख आना

 

पिप्पली या छोटी पीपल अनेक औषधीय गुणों से संपन्न होने के कारण आयुर्वेद की एक प्रमुख और प्रतिष्ठित दवा है। आम जनमानस में यह गरम मसाले की सामग्री के रूप में भी जाना जाता है। पिप्पली की कोमल तनों वाली लताएं 1-2 मीटर तक जमीन पर फैलती हैं। इसके गहरे हरे रंग के चिकने पत्ते 2-3 इंच लंबे और 1-3 इंच चौड़े हृदय के आकार के होते हैं। कच्चे फलों का रंग हल्का पीला होता है जबकि पकने पर यह गहरा हरा रंग लेता है और अंततः काला हो जाता है। इसके फलों को ही छोटी पिप्पली कहा जाता है। पिप्पली बिहार, बंगाल, असम, उत्तर प्रदेश और हिमालय की तराई वाले क्षेत्रों में बहुतायत में होती है। झारखंड के जंगलों में भी इसके पौधे पाये जाते हैं। इसकी बढ़ती हुई मांग को देखते हुए अनेक स्थानों पर इसकी खेती की जा रही है। झारखंड की पहाड़ियों में नमी वाले स्थानों पर इसकी व्यापक खेती की संभावनाएं हैं।

 

पिप्पली लगाने के लिए उपयुक्त स्थान, विधि एवं देखभालः

पिप्पली के पौधों के तनों  के छोटे-छोटे टुकड़ों को गांठ के साथ काटकर हल्की नमी वाली मिट्टी में लगाया जा सकता है। हल्की छाया में भी इसकी लताएं फलती-फूलती हैं। इसे गर्मी के दिनों में नियमित सिंचाई की आवश्यकता होती है।

 

दवा के रूप में कैसे होता है उपयोगः

 मुख्यतः इसके फल का उपयोग औषधि बनाने में होता है। 5-6 वर्ष पुरानी जड़ों का उपयोग भी अनेक रोगों में किया जाता है।

 

आधुनिक चिकित्सा विज्ञानियों का मतः

भारत एवं अन्य देशों में हुए अनेक परीक्षणों से पता चला है कि पिप्पली में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के निश्चित गुण हैं, जिसके कारण टी.बी. एवं अन्य संक्रामक रोगों की चिकित्सा में इसका उपयोग लाभदायक होता है। पिप्पली अनेक आयुर्वेदिक एवं आधुनिक दवाओं की कार्यक्षमता को बढ़ा देती है।

 

उपयोग विधिः

छोटी पिप्पली, काली मिर्च एवं सोंठ को बराबर मात्रा में पीसकर मिला दें। इस मिश्रित योग को त्रिकूट या त्रिकटू के नाम से जाना जाता है।

 

खांसी की उपयोगी दवाः

उपर्युक्त विधि से बनाया गया त्रिकटू 8 वर्ष तक के बच्चों को 200-300 मिलिग्राम एक चुटकी, बड़ों को 1-2 ग्राम शहद के साथ सुबह-शाम खाली पेट देने से चार-पांच दिनों में ही खांसी में लाभ होता है। इसे लेने के आधे घंटे पहले और बाद में कुछ भी खाना-पीना नहीं चाहिए।

 

हल्के पुराने बुखार के इलाज में उपयोगः

त्रिकटू ऊपर बतायी गयी मात्रा में 5-10 बूंद घी मिलाकर लेना चाहिए।

 

सांस फूलने या दमा का इलाजः

दो ग्राम पिप्पल को कूटकर चार कप पानी में उबालें और दो कप रह जाने पर उतारकर छान लें। इस पानी को दो-तीन घंटे के अंतर पर थोड़ा दिन भर पीने से कुछ ही दिनों में सांस फूलने की तकलीफ कम हो जायेगी।

 

वातजनित रोग में उपयोगीः

पांच-छह वर्ष पुरानी पिप्पली के पौधों की जड़ सुखा कर कूट कर चूर्ण बना लें। इस चूर्ण की 1-3 ग्राम की मात्रा गर्म पानी या गर्म दूध के साथ पिला देने से शरीर के किसी भी भाग का दर्द एक-दो घंटे में दूर हो जाता है। वृद्ध अवस्था में शरीर के दर्दों में यह अधिक लाभदायक होता है।

 

घृतकुमारी या घीकुआर (एलोवेरा) भारत ही नहीं, दुनिया के कई देशों में अनेक रोगों के उपचार में इस्तेमाल किया जानेवाला एक सुप्रसिद्ध पौधा है। यह एक से ढाई फूट ऊंचा, बहुवर्षीय प्रकृति वाला है।  इसकी  ढाई से चार इंच चौड़ी नुकीली और कांटेदार किनारों वाली पत्तियां अत्यंत मोटी और गद्देदार होती हैं। पत्तियों में हरि छिलकों के नीचे गाढ़ा, रंगहीन, चिपचिपा जेली के समान रस भरा होता है। यह रस ही दवा के उपयोग में आता है। घृतकुमारी भारत के प्रायः सभी राज्यों में उगता है। अनेक लोग इसे अपने बगीचों की शोभा के लिए लगाते हैं।

 

घृतकुमारी लगाने के लिए उपयुक्त स्थान, विधि एवं देखभालः

घृतकुमारी को इसका छोटा पौधा प्राप्त कर जमीन या 10 से 12 इंच के गमले में लगा सकते हैं। यह लगभग हर प्रकार की मिट्टी में, खुली या हल्की छाया वाले स्थान में आसानी से लगाया जा सकता है। इसके लिए सप्ताह में दो बार थोड़ा पानी ही पर्याप्त होता है। प्रतिदिन सिंचाई आवश्यक नहीं है।

 

आधुनिक स्वास्थ्य वैज्ञानिकों का मतः

विश्व भर में पिछले पांच दशकों में घृतकुमारी पर हुए अनुसंधानों से पता चलता है कि यह जलने से हुए जख्मों की चिकित्सा में अत्यंत प्रभावकारी है। इसके अलावा अनेक प्रकार के चर्मरोगों में भी इसकी उपयोगिता प्रमाणित हुई है। शरीर की प्रतिरोधक शक्ति पर भी इसके लाभकारी प्रभावों का पता चला है।

 

दवा के रूप में कैसे होता है उपयोगः

मुख्यतः इसके पत्तों और कहीं-कहीं जड़ों का इस्तेमाल भी औषधि बनाने में किया जाता है।

 

जलने पर देती है तत्काल आरामः

 जलने की छोटी-मोटी घटनाओं जैसे कि गर्म तेल और पानी गिरने पर, गर्म बर्तन या आयरन सट जाने से तत्काल घृतकुमारी के पत्ते को तोड़कर उसका चिपचिपा गुद्दा, रस को जले हुए स्थान पर लगा देने से कुछ ही मिनटों में दर्द ठीक हो जाती है और फफोले पड़ने की आशंकाएं कम हो जाती हैं। जले स्थान पर इसे दिन में दो से तीन दिन लगाने पर जख्म पूरी तरह ठीक हो जाता है।

 

कब्ज के इलाज में है उपयोगीः

 घृतकुमारी के पत्तों का रस आधा कप के अंदाज से प्रतिदिन पीने से कब्ज दूर होता है। एक-दो महीनों के शिशु का पेट यदि साफ नहीं हो रहा हो या पेट फूल रहा हो तो ऐसी स्थिति में दो-चार बूंद रस मधु के साथ मिलाकर चटाने से पेट का फूलना कम होता है और मलत्याग भी नियमित हो जाता है।

 

मासिक धर्म की गड़बड़ी भी करती है दूर

मासिक कम या अधिक होने पर, अनियमित होने पर या दर्द होने पर घृतकुमारी के रस को सुखाकर बनायी हुई गोलियां दो-3 हल्के गर्म पानी के साथ दिन में दो बार लेने से दो-तीन महीने में समस्याएं पूरी तरह दूर हो जाती हैं।

 

बवासीर की तकलीफ होती है दूरः

घृतकुमारी का गुद्दा 5-7 ग्राम थोड़ा घी में मिलाकर सुबह-शाम खाने से लाभ होता है।
भूख न लगने या लीवर की कमजोरी में उपयोगः घृतकुमारी का गुद्दा 3-4 ग्राम थोड़ी चीनी मिलाकर सुबह-शाम खाने से कुछ दिन में भूख लगने लगती है। लीवर की कमजोरी दूर होती है।

 

इन समस्याओं में भी उपयोगी है घृतकुमारी-

·         जलने पर

·         कब्ज

·         भूख की कमी

·         बवासीर

·         लीवर की कमजोरी

·         जोड़ों के दर्द में

·         सौंदर्य निखारने में

·         असमय बाल झड़ने पर

·         मासिक की गड़बड़ियां

·         मासिक में दर्द

·         अति रक्तस्राव

·         कम रक्तस्राव

·         चर्मरोग

 

कालमेघ का परिचय

कालमेघ भारत के लगभग सभी राज्यों के जंगलों में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। इसके एक से तीन फीट के ऊंचे पौधे में अनेक पतली-पतली शाखाएं होती हैं। इसका मुख्य तना एवं शाखाएं चौपहल होती हैं। इसकी पत्तियां मालाकार तीन से चार इंच लंबी एवं एक से सवा इंच चौड़ी होती हैं। इसके फूल हल्का गुलाबी रंग लिये सफेद होते हैं। वर्षा ऋतु के प्रारंभ में इसके पौधे जन्मते हैं और जाड़े में फूल एवं फल लगते हैं। कालमेघ का स्वाद अत्यंत कड़वा होता है।


कालमेघ लगाने के लिए उपयुक्त स्थान, विधि एवं देख-भालः

कालमेघ स्वतः जंगलों में प्रचुर मात्रा में पैदा होता है। इसे घर के बगीचे में लगाने की आवश्यकता नहीं है, पर इसकी वैश्विक स्तर पर जिस तरह से मांग बढ़ रही है, उसे पूरा करने के लिए शीघ्र ही इसकी खेती की आवश्यकता है।


आधुनिक स्वास्थ्य वैज्ञानिकों का मतः

हाल में हुए वैज्ञानिक शोधों से पता चला है कि कालमेघ में शरीर की प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने के गुण हैं। डेनमार्क के अस्पताल में लू के रोगियों पर किये गये एक अध्ययन में कालमेघ को लू की चिकित्सा में निश्चित प्रभावी पाया गया है।


दवा के रूप में कैसे होता है इसका उपयोगः

इसका पूरा पौधा यानी पौधे के सभी पांच अंग- जड़, पत्ती, तना, फूल और फल औषधीय गुणों से भरपूर हैं। हालांकि आम तौर पर इसके जमीन से ऊपर वाले अंगों का उपयोग किया जाता है।


बुखार में उपयोगः

किसी भी तरह के बुखार में ताजा कालमेघ के पत्तों का रस दो चम्मच या इसके पांच से दस ग्राम पाउडर से बने काढ़े का उपयोग दिन में दो-चार बार करने से बुखार उतर जाता है।


जख्म के उपचार में उपयोगीः

कालमेघ को पानी में उबालकर  उस पानी से घाव को धोने पर वह जल्द ठीक हो जाता है।


पेट के जोंक खत्म करता है:

 सभी प्रकार की कृमि में कालमेघ लाभकारी है। कालमेघ के पत्तों का रस 30-35 बूंद  और कच्ची हल्दी का रस 30-35 बूंद एक साथ मिलाकर थोड़ी चीनी मिलाकर सुबह-शाम एक-एक बार लेना चाहिए।


पतले दस्त और खूनी आंव का इलाज :

 कालमेघ के पत्तों का रस या इसके सूखे पौधे का काढ़ा दिन में दो बार पीने से दो-तीन दिनों में ही आराम हो जाता है।


मलेरिया बुखार में पीयें इसका काढ़ा :  

कालमेघ के पत्तों का रस या इसके सूखे पौधों का काढ़ा  दिन में दो बार पीने से दो-तीन दिन में ही आराम मिलता है।


पेट की बीमारियों ( पेट फूलना, अपच, एसिडिटी आदि) के इलाज में उपयोगीः

कालमेघ के पत्ते का रस लेकर उसमें आधा चाय चम्मच पानी मिलाकर पीने से पांच-सात दिनों में पेट फूलने और एसिडिटी में राहत मिलती है, भूख लगने लगती है।


रोग, जिनमें उपयोगी है कालमेघः

·         बुखार

·         पेट की कृमि

·         पेट के दोष (पेट फूलना, अपच)

·         एसिडिटी

·         पतले एवं खूनी दस्त

·         आंव

·         घाव

·         चर्म रोग

·         एलर्जी

·         मलेरिया

ब्राह्मी आयुर्वेद के ग्रंथों में वर्णित एक अत्यंत उपयोगी और गुणकारी पौधा है। यह लता के रूप में जमीन पर फैलता है। इसके पतले-पतले कोमल तने एक से तीन फीट लंबे होते हैं, जिसपर थोड़ी-थोड़ी दूर पर गांठें होती हैं। इन गांठों से जड़ें निकलकर जमीन में चली जाती हैं और उससे भी अलग शाखाएं और पत्ते निकलते हैं। शाखाओं की लंबाई चार से बारह इंच तक होती है। पत्ते छोटे, लंबे अंडाकार, चिकने मोटे गहरे और हरे रंग के होते हैं। इसके छोटे-छोटी फूल सपदे हल्के नीले-गुलाबी रंग लिये होते हैं। ब्राह्मी को हरे साग के रूप में खाया जाता है।


ब्राह्मी लगाने के लिए उपयुक्त स्थान, विधि एवं देखभालः

ब्राह्मी के पौधे इसकी जड़  सहित गांठों वालों तने के छोटे-छोटे टुकड़े काटकर हमेशा नमी वाली मिट्टी में आसानी से लगाये जा सकते हैं। इन्हें नियमित रूप से धूप भी मिलना चाहिए। इसे कुएं, नलकूप, नल या पानी के निकास मार्ग वाले स्थानों पर, जहां हमेशा नमी रहती हो, लगाना चाहिए। इसे गमले में भी लगाया जा सकता है, पर गमले से उपयोग लायक मात्रा प्राप्त करना कठिन है।


आधुनिक स्वास्थ्य वैज्ञानिकों का मतः

 ब्राह्मी के विषय में पिछले 20 वर्षों में किये गये शोध कार्यों से पता चलता है कि ब्राह्मी में वेकोसाइड ए एवं वेकोसाइडड बी नामक रसायन पाये जाते हैं, जो बुद्धि एवं स्मृति शक्ति के विकास में अत्यंत सहायक हैं। ब्राह्मी में मस्तिष्क की उत्तेजना शांत करने के गुण भी पाये जाते हैं।

दवा के रूप में उपयोगः

ब्राह्मी के पौधे के पांचों अंग- पंचाग- का उपयोग दवा के रूप में किया जाता है।


मेधा एवं स्मरण शक्ति के विकास में सहायकः

ब्राह्मी पंचांग का स्वरस एक से दो चम्मच लगभग पांच से 10 ग्राम आधे चम्मच घी में मिलाकर एक ग्लास दूध के साथ भोजन के बाद दिन में एक बार लगातार एक माह तक सेवन करने से उल्लेखनीय परिणाम आते हैं। स्वरस के स्थान पर इसके पंचांग का सुखाया हुआ चूर्ण उम्र के अनुसार 100 मिलिग्राम से 500 मिलिग्राम तक लिया जा सकता है। ब्राह्मी का सीरप या घृत बनाकर भी लिया जा सकता है।


शिशु कफ विकार को करता है दूरः

शिशु के गले में कभी-कभी कफ जमा हो जाता है और इससे सांस लेने में कठिनाई होती है। ऐसी स्थिति में ताजा ब्राह्मी का रस 25-30 बूंद एक चम्मच दूध में मिलाकर प्रतिदिन पिलाने से जल्द ही जमा कफ बाहर निकल आता है और सांस की तकलीफ कम हो जाती है।


मानसिक तनाव या उत्तेजना में लाभकारीः

मानसिक तनाव या उत्तेजना की समस्या हो तो ब्राह्मी घृत का उपयोग दो-तीन माह तक करने से मन शांत रहता है मस्तिष्क की कार्यक्षमता में सुधार होता है।


ब्राह्मी घृत ऐसे बनायें :

एक किलो ताजा ब्राह्मी स्वरस को एक पाव शुद्ध गाय की घी में डालकर धीमी आंच पर तब तक पकायें जब तक कि स्वरस का जलीय अंश पूरी तरह समाप्त न हो जाये। इस घृत का सेवन भोजन के उपरांत दूध के साथ करना चाहिए।


ब्राह्मी चूर्णः

ब्राह्मी के पंचांग को साफ कर छाया में सुखाना चाहिए। छाया में अच्छी तरह सूखने के बाद इसे पीसकर महीन चलनी या कपड़े से छानकर हवाबंद डब्बों या बोतल में रखना चाहिए।


इन रोगों के इलाज में उपयोगी है ब्राह्मी

·        स्मृति बढ़ाने में

·        शिशु कफ विकार

·        मस्तिष्क की उत्तेजना

·        तनाव

·        हिस्टीरिया, उन्माद

·        मन्द बुद्धि

·        अनिद्रा

·        अपस्मार (मिर्गी)

अमृता परिचयः अमृता एक सुदृढ़ लता है। यह भारत के सभी राज्यों में आसानी से फलती-फूलती है। इसके गहरे हरे रंग के पत्ते हृदय के आकार के होते हैं। मटर दानों के आकार के इसके फल कच्चे में हरे और पकने पर गहरे लाल रंग के होते हैं। यह लता पेड़ों, चहारदीवारी और घर की छत पर आसानी से फैलती है। आयुर्वेद में इसके गुणों का विस्तृत वर्णन किया गया है। दो सौ से अधिक प्रकार की आयुर्वेदिक दवाइयों में इसका इस्तेमाल किया जाता है।


अमृता लगाने के लिए उपयुक्त स्थान, विधि एवं देखभालः 

अनेक वर्षों तक जीवित रहनेवाली इस लता के तने का 10-12 इंच लंबा टुकड़ा रोपकर इसे आसानी से उगाया जा सकता है। फैलने पर इसके तने से पतली-पतली जड़ें निकल कर हवा में लटकती है।

आधुनिक स्वास्थ्य वैज्ञानिकों का मतःपिछले पंद्रह वर्षों में भारत एवं अन्य देशों के अनेक चिकित्सा वैज्ञानिकों ने अमृता का गहन अध्ययन कर पाया है कि इसमें शरीर के प्रतिरोधक शक्ति (इम्युनिटी) ठीक करने एवं बढ़ाने के अद्भुत गुण हैं। इन गुणों के कारण ही अमृता अनेक रोगों में लाभदायक होती है।


दवा के रूप में कैसे होता है इसका उपयोगः 

मुख्य रूप से तीन साल पुराने तने का उपयोग किया जाता है। कहीं-कहीं पत्तों और जड़ को भी काम में लेते हैं।


संक्रामक बुखार में अत्यंत प्रभावीः 

लगभग अंगूठे के समान मोटे अमृता के तने का छह-आठ अंगुल टुकड़ा लेकर उसके छोटे-छोटे टुकड़े काट कर या कूचकर दो कप पानी में उबालें। जब आधा कप पानी रह जाये तो उतार लें। इसे छानकर सुबह-शाम खाली पेट रोगी को पिलायें। ताजा अमृता न मिलने पर छाया मे सुखाई हुई अमृता के 5-10 ग्राम पाउडर का प्रयोग करें। इस प्रयोग से बुखार दूर होने के साथ-साथ रोगी की कमजोरी भी दूर हो जाती है और भूख लगने लगती है। अगर डॉक्टर ने बुखार के लिए एंटीबायोटिक खाने की सलाह दी हो तो एंटीबायोटिक के साथ इसका प्रयोग करने से न केवल एंटीबायोटिक की आवश्यकता कम हो जाती है, बल्कि एंटीबायोटिक से होनेवाला कुप्रभाव (साइड इफेक्ट्स) भी कम हो जाता है।


रक्त प्रदर की बीमारी का इलाजः

अमृता के पत्ते एवं जड़ दोनों में से प्रत्येक 5 ग्राम पीसकर  इसका रस निकाल लें और प्रत्येक दिन खाली पेट पीयें। दो माह तक लगातार इसका सेवन करने से रक्त प्रदर ठीक हो जाता है।

श्वेत प्रदर बच्चेदानी की गांठःअमृता के ताजे तने या पाउडर का प्रयोग बुखार में बतायी गयी विधि के अनुसार ही करें। तीन माह तक सुबह एक बार खाली पेट प्रयोग करने से लाभ होता है। मासिक के दिनों में इसका प्रयोग न करें।


जोड़ों का दर्दः 

अदरख या सोंठ के साथ इसका प्रयोग करने से दर्द और जोड़ की सूजन में आराम मिलता है।


इन बीमारियों में होता है अमृता का उपयोग 

·         सभी प्रकार के पुराने बुखार

·         सभी प्रकार के संक्रामक रोग

·         टी.बी.

·         लीवर की बीमारियां

·         दुर्बलता, कमजोरी

·         भूख न लगना

·         चर्म रोग- खुजली, फोड़े, फुन्सी, सोरियासिस, जुलपित्ती

·         खांसी

·         अस्थमा (दमा)

·         पुराने दूषित घाव

·         मासिक धर्म में अधिक खून जाने पर

·         हड्डी टूटने पर

·         आमवात (रूमेटाइड आर्थराइटिस)

·         डायबिटिज (मधुमेह)

 

 

डॉ. सुरेश अग्रवाल ने इम्यून सिस्टम को दुरुस्त करने के लिए बनायी अनूठी दवा




हमारे स्वास्थ्य का सबसे महत्वपूर्ण आधार है-इम्युनिटी। इम्युनिटी का अर्थ है हमारे शरीर के अंदर निहित वह क्षमता, जो बीमारियों के हमले से हमें प्राकृतिक रूप से बचाती है। कोरोना की महामारी ने जब पूरी दुनिया को कमोबेश एक साथ अपनी चपेट में लिया, तो यह बात सामने आयी कि इसकी चपेट में आकर सबसे ज्यादा वैसे लोग आये, जिनकी इम्युनिटी यानी रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर है। दरअसल, सच तो यह है कि इम्युनिटी की कमी या गड़बड़ी से केवल कोरोना ही नहीं, बल्कि अन्य बीमारियां भी होती हैं। जाहिर है, रोगों से लड़ने या उन्हें करीब आने से रोकने के लिए शारीरिक क्षमता यानी इम्युनिटी का विकास अत्यंत जरूरी है। इस तथ्य को रांची के डॉ. सुरेश कुमार अग्रवाल ने मेडिकल की पढ़ाई और शोध के दौरान समझ लिया था। उन्होंने तभी तय कर लिया था कि आगे चलकर वह शरीर के इम्यून सिस्टम के स्वाभाविक विकास के लिए प्राकृतिक स्रोतों की खोज करेंगे, उससे जुड़े प्रयोगों के प्रति खुद को समर्पित करेंगे और इसके लाभ के प्रति सामान्य जन को जागरूक करेंगे।   


मेडिकल कॉलेज में सर्जरी में एम.एस. (मास्टर इन सर्जरी) की पढ़ाई के दौरान छात्रों को किसी विषय पर शोध कर थीसिस प्रस्तुत करना आवश्यक होता है। डॉक्टर सुरेश कुमार अग्रवाल ने  1985 में रांची के राजेंद्र मेडिकल कॉलेज में एम.एस. के दौरान थीसिस के लिए जो विषय चुना, वह था- कैंसर रोगियों में इम्यून सिस्टम की गड़बड़ियां। सर्जरी में इस विषय के चुनाव से उनके गाइड रिम्स के तत्कालीन विभागाध्यक्ष डा. जी. दास विस्मित हुए थे। दरअसल यह विषय बिल्कुल नया था और सर्जरी से इसका कोई सीधा संबंध नहीं था।

डॉ. अग्रवाल ने अध्ययन और शोध के दौरान पाया कि इम्यून सिस्टम की कमजोरियों और गड़बड़ियों के कारण कैंसर ही नहीं तरह-तरह के इन्फेक्शन, एलर्जी, सोरियासिस, सफ़ेद दाग , गठिया, दमा और अनेक प्रकार के ऑटो इम्यून रोग होते हैं। डॉ. अग्रवाल ने यह भी पाया कि इम्यून सिस्टम की कमजोरियों और गड़बड़ियों को ठीक करने के लिए एलोपैथ चिकित्सा विज्ञान में दवाइयां लगभग हैं ही नहीं। उन्होंने पाया कि एलोपैथ की दवाइयां ज्यादातर बीमारियों में मरीज की तकलीफ को न्यून स्तर पर जरूर ले जाती हैं, लेकिन शरीर के भीतर ऐसे सिस्टम के विकास में इतनी कारगर नहीं होतीं कि वापस ऐसी बीमारियों के हमले न हों। एलोपैथ चिकित्सा की पढ़ाई के बावजूद डॉ. अग्रवाल छात्र जीवन से ही वनौषधियों और आयुर्वेद में गहरी रुचि रखते थे। एम.एस. में शोध के दौरान वह इस तथ्य को लेकर जिज्ञासु रहे कि क्या आयुर्वेद की वनौषधियां इम्यून सिस्टम को प्रभावित कर सकती हैं?


इसी क्रम में वह रांची वेटनरी कॉलेज के माइक्रोबायोलोजी के प्रोफेसर बी. के.तिवारी और उड़ीसा से वेटेनरी विज्ञान में पोस्ट ग्रेजुएट करने आये छात्र डा. प्रशांत सुबुद्धि के संपर्क में आये। उन दोनों के साथ मिलकर डॉ. अग्रवाल ने अमृता यानी गुडिच या गिलोय और तीन अन्य वनौषधियों के इम्यून सिस्टम पर प्रभाव पर गहन अध्ययन किया। भारत ही नहीं, पूरे विश्व में यह अनूठा अध्ययन था। अध्ययन के परिणाम अत्यंत उत्साहवर्धक रहे। 1989 में शोध पूरा होने होने पर डॉ अग्रवाल इस नतीजे पर पहुंचे कि अमृता हमारे शरीर के इम्यून सिस्टम की कमजोरियों और गड़बड़ियों को ठीक करने में अत्यंत प्रभावशाली है।


रांची वेटनरी कॉलेज की प्रयोगशाला में प्रयोग के नतीजों के साथ-साथ डॉ. अग्रवाल ने इस विषय पर प्रकाशित अन्य शोध पत्रों और आयुर्वेद विज्ञान के ग्रंथों के अध्ययन के आधार पर अमृता यानी गिलोय के अधिकतम गुणों वाला एक्सट्रैक्ट बनाने की पद्धति विकसित कर ली। इसके साथ उन्होंने हिमालय की उंचाइयों पर पाये जाने वाले कुटकी मूल, अश्वगन्धा और यशद भस्म के कॉम्बिनेशन से बनायी इम्यून सिस्टम पर काम करने वाली बहु उपयोगी दवा-  “कैप्सूल इम्यूटोन”।  


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पिछले 6 महीनो में 11 राज्यों के 20 से अधिक शहरों के 5 वर्ष से 86 वर्ष की उम्र के 5000 हजार से अधिक लोगों ने आजमाया | डायबिटीज, हाई ब्लड प्रेसर, दमा, जैसे रोगों में सुरक्षित

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कुछ ही महीनों में घर-परिवार, स्वजनों और अपने रोगियों पर “कैप्सूल इम्यूटोन”  के प्रयोग से अलग-अलग रोगों पर अप्रत्याशित लाभ से डॉ.अग्रवाल इस नतीजे पर पंहुचे कि आने वाले दिनों में इम्यून सिस्टम की गड़बड़ियों को ठीक करके अनेक साधरण और कठिन रोगों की बेहतर चिकित्सा की जा सकती है और इसमें आयुर्वेद में वर्णित वनौषधियां  महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी।


“कैप्सूल इम्यूटोन”  के उत्पादन का लाइसेंस लेकर इसे 1990 में ही बाज़ार में उतारा गया। तीन हीनो में ही अनेक चिकित्सकों ने विभिन्न रोगों में  “कैप्सूल इम्यूटोन”  की उपयोगिता को लेकर बेहतरीन अनुभव बताये। व्यवसाय जगत की पेचिदगियों  और परिस्थितिजन्य कारणों से डा.अग्रवाल ने बाद में  “कैप्सूल इम्यूटोन”  का उत्पादन और प्रयोग अपने क्लिनिक के रोगियों तक ही सीमित कर लिया। विगत 30 वर्षों से वे मरीजों की इम्युनिटी की गड़बड़ियों को ठीक करने के लिए इसका लगातार उपयोग कर रहे हैं।

डॉ.अग्रवाल ने 1999 में आयुर्वेद और एलोपैथ के इंटीग्रेशन के साथ स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के लिए रांची में अमृता पारिवारिक स्वास्थ केंद्र की स्थापना की। इम्यून सिस्टम की गड़बडियों के कारण होने वाले रोगों की चिकित्सा में अपने अनुभवों के आधार पर डा.अग्रवाल शरीर के अलग-अलग तंत्रों की इम्युनिटी सुदृढ़ करने के लिए काम कर रहे हैं। चिकित्सकीय अध्ययन को व्यापक आयाम देने के लिए उन्होंने अपने आवासीय परिसर को वनौषधियों और आयुर्वेद के साथ एलोपैथ के समन्वय का एक अनूठा केंद्र बन दिया है।


डॉ. सुरेश कुमार अग्रवाल

कोरोना वायरस नाक या मुंह के रास्ते पहले श्वास नली में दाखिल होता है। फिर, फेफड़ों को प्रभावित करता है और शरीर के दूसरे हिस्सों में फैलने की कोशिश करता है।  हमारे शरीर में अगर प्राकृतिक प्रतिरोधक क्षमता हो तो इसकी बदौलत शरीर में कोरोना वायरस का प्रसार रोकने और परास्त करने में मदद मिलती है। अगर अपने शरीर का इम्यून सिस्टम मजबूत रखा जाये तो इस वायरस को  अधिक खतरनाक स्तर पर पहुंचने के पहले ही नष्ट किया जा सकता है। कोरोना की चिकित्सा में उन उपायों पर जोर देना लाभप्रद है, जो हमारे शरीर का इम्यून सिस्टम मजबूत करे।

कमजोर इम्युनिटी की स्थिति में वायरस की संख्या तेजी से बढ़ती है और प्रतिक्रियास्वरूप  तीव्र  इन्फ्लामेशन यानि  शोथ की स्थिति पैदा होती है। इस स्थिति में फेफड़ा, किडनी, लीवर आदि अनेक आंतरिक अंग बुरी तरह प्रभावित होते हैं। इससे मल्टी ऑर्गन फेलियर” होता है और अंततः जान भी जा सकती है। कोरोना का वायरस सबसे ज्यादा फेफड़े पर हमला करता है। यह फेफड़े में सूजन पैदा करता है और अक्सर इसकी वजह से व्यक्ति का सांस लेना दूभर हो जाता है। इस अवस्था में मरीज को लाइफ सपोर्ट देने के लिए वेंटीलेटर की मदद ली जाती है ताकि जीवन के लिए आवश्यक ऑक्सीजन मिलता रहे। वेंटीलेटर की मदद से विषम परिस्थितियों में जीवन रक्षक उपायों से कुछ रोगी वायरस के शिकंजे से बाहर आ जाते हैं। पर, यह कोरोना की फुलप्रूफ चिकित्सा नहीं है।

कोरोना के मरीजों के इलाज में यह ध्यान रखना अत्यंत जरूरी है कि उसके इम्यून सिस्टम को पर्याप्त सपोर्ट मिले। इम्यून सिस्टम को दुरुस्त रखने के उपायों पर ध्यान रखते हुए उसे ऐसी चिकित्सा सहायता उपलब्ध करायी जानी चाहिए जिससे वायरस का प्रसार रोका जा सके।

कोरोना पॉजिटिव  रोगियों की चिकित्सा में सिद्धांत  रूप से तीन मुख्य बिंदुओं पर ध्यान देना तर्क और विज्ञानसम्मत होगा.

1. वायरस को मारने या इनकी संख्या कम करने के लिए उपाय करना

2. शरीर की प्राकृतिक प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्युनिटी) को अधिक से अधिक प्रभावशाली बनाये रखना

3. वायरस की प्रतिक्रिया के कारण शोथ (इन्फ्लामेशन) की क्रिया को रोकना

सफलता की सम्भावनाओं के लिए इन तीनों लक्ष्यों को कुछ मापदंडों पर जांचा जाना आवश्यक है। इनका प्रभावशाली, सुरक्षित, सर्वसुलभ और आर्थिक दृष्टि से किफायती होना आवश्यक है। आइए, अब देखते हैं कि इलाज में इन तीनों लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए उल्लिखित मापदंडों के अनुसार भारत में क्या संसाधन उपलब्ध हैं।

झारखण्ड के  जंगलों में प्रचुर मात्रा में स्वतः उगने-फैलने वाला एक पौधा है कालमेघ। इसे आम तौर पर चिरायता के नाम से पुकारते हैं। झारखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में  वायरल बुखार तथा अन्य स्वास्थ्य समस्याओं में इसका उपयोग सदियों से किया जाता रहा है। यहां यह बताना आवश्यक है कि कालमेघ असल में आयुर्वेद के शास्त्रों में उल्लिखित चिरायता नहीं है। कालमेघ का  प्रयोग भारत के साथ-साथ चीन, थाईलैंड, इण्डोनेशिया जैसे देशों में अनेक प्रकार के संक्रामक बुखारों और अन्य अनेक स्वास्थ समस्याओं से बचने और इलाज दोनों के लिए परंपरागत ढंग से किया जाता है। लखनऊ स्थित डिफेन्स इंस्टीच्यूट ऑफ़ फिजियोलॉजी एंड एलाइड साइंसेस के प्रकाशित शोध पत्र से पता चलता है कि कालमेघ में आठ प्रकार के वायरस के विरुद्ध मारक गुण हैं। यह इन्फ्लूएंजा, चिकनगुनिया, हर्पीस सिम्पलेक्स, हेपेटाइटिस बी, हेपेटाइटिस सी, एच. आई. वी के वायरस फैलने से रोकता है।

अमृता भी एक ऐसा पौधा है, जिसमें आश्चयर्जनक चिकित्सकीय गुण पाये जाते हैं। इसे गुडिच या गिलोय भी कहते हैं। इसके नाम और गुण से अब बड़ी संख्या में लोग परिचित हो चुके हैं। विगत 35 वर्षों में भारत और दुनिया के सौ से अधिक वैज्ञानिकों ने इसके गुणों पर बड़े स्तर पर अनुसंधान करके पाया है कि इस अमृततुल्य लता के हर हिस्से, खास तौर कर इसके तने में इम्युनिटी विकसित करने के गुण हैं। हर प्रकार के बुखार, घाव, एलर्जी और कैंसर पीड़ितों के लिए इसकी उपादेयता सिद्ध हो चुकी है और विज्ञान द्वारा इसे स्वीकार किया जा चुका है। भारत में परंपरागत रूप से अलग-अलग प्रकार के चेचक (छोटी माता, बड़ी माता), मिजेल्स जैसे वायरल संक्रमण से बचाव और इलाज दोनों के लिए  लिए  नीम का प्रयोग किया जाता था। भारत के विभिन्न प्रदेशों में आज भी चैत के महीने में नीम की कोमल पत्तियों का सेवन अनेक प्रकार से किया जाता है। बंगाल के रसोई घरों में चैत के महीने में  नीम की कोमल नई पत्तियों के साथ बैंगन का प्रसिद्ध  व्यंजन “नीम वैगुन” बनाया जाता है। इस व्यंजन की लोकप्रियता केवल बंगाल के गांवों में ही नहीं, कलकत्ता जैसे महानगर में भी है।

विगत 20 वर्षों में आधुनिक विज्ञान की उन्नत प्रयोगशालाओं में हुए सैकड़ों रिसर्च में नीम की पत्तियों, तना और फल में प्रतिरोधक शक्ति बढाने और एंटीवायरल गुणों की प्रामाणिकता साबित हो चुकी है। नीम के पत्तों का परंपरागत प्रयोग अत्यंत लाभदायी है, इसपर आधुनिक विज्ञान भी अपनी मुहर लगाता है।  भारत में चैत के महीने के बाद ही गर्मी और बरसात के मौसम में अनेक प्रकार की संक्रामक बीमारियों का प्रकोप सामान्य तौर पर देखा जाता है। इसलिए चैत  के महीने में नीम के प्रयोग से सूक्ष्म जीवाणुओं के संक्रमण से सुरक्षा कवच को मजबूती देनी चाहिए। आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान भी इसे प्रामाणिक मानता है। वायरस रोधी और इम्युनिटीवर्धक गुणों के कारण कोरोना की रोक-थाम में अभी किये जाने वाले सभी उपायों के साथ साथ नीम की पत्तियों का प्रयोग किया जाना युक्ति और विज्ञान सम्मत होगा।

भारत के विभिन्न राज्यों में जीवनशैली और खान-पान में तुलसी और हल्दी दोनों का विशिष्ट स्थान है। अनेक  सामजिक और धार्मिक अनुष्ठान हल्दी के बिना पूरे नहीं होते हैं।

धर्म के रूप में जीवन उपयोगी स्वास्थ विज्ञान की लोक स्थापना सर्वे सन्तु निरामयाःके आदर्शवाक्यसे प्रेरित है। हर किसी के स्वस्थ होने की कामना हमारे ऋषियों की अद्भुत परिकल्पना और लोककल्याण की भावना का परिचायक है। गहन रिसर्च में हल्दी के जीवाणु रोधी गुणों और इम्यून सिस्टम को लाभ देने वाले गुण प्रमाणित हो चुके हैं। यही कारण है कि आज यूरोप और अमेरिका के बाजारों में हल्दी के पेय आमजनों में बेहद लोकप्रिय हो रहे हैं।

हर सनातन जीवन पद्धति के अनुयायी के आंगन या बरामदे में तुलसी का पौधा श्रद्धा के साथ मौजूद है। तुलसी के पत्तों के एंटीवायरल और प्रतिरोधक शक्ति वर्द्धक गुणों की जानकारी के कारण ही शायद हमारे ऋषियों ने हर  सुबह की शुरुआत पानी के साथ हथेली पर तुलसी  के 2-4 पत्तों को पवित्र प्रसाद के रूप में ग्रहण करने की प्रथा को धर्म का हिस्सा बना दिया। इस प्रथा का पालन कर करोड़ों नागरिक इसके गुणों से लाभान्वित होते हैं।

छोटी पिप्पली भारत के रसोई घरों के गरम मसालों का अभिन्न अंग है। महंगी होने की वजह से अब प्रायः पिप्पली का प्रयोग कम होता जा रहा है, लेकिन सच तो यह है कि इसमें जीवाणु रोधक गुणों और इम्युनिटी बढ़ाने के भरपूर गुण हैं। शोध में इसके एक और अद्भुत गुण का पता चला है, जिसे आयुर्वेद में योगवाही कहा है। योगवाही का अर्थ है इसमें द्रव्यों या औषधियों के गुणों को बढ़ाने की क्षमता है।

वासक, वाकस या अडूसा के नाम परिचित झाड़ीनुमा पौधे का उपयोग आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में मुख्य रूप से हर प्रकार की खांसी के उपचार के लिए किया जाता है। यह भारतीय बाजार में अगिनत कंपनियों द्वारा बनाये गए  उत्पादों में घटक के रूप में शामिल किया जाता है। इस पौधे पर किये गए शोध से कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां मिली हैं। इसके पत्तों में मौजूद रसायनों में सांस नली और फेफड़ों के इम्यून सेल्स की कार्यक्षमता बढ़ाने के गुण तो है ही, यह पूरे श्वास तंत्र के इन्फ्लामेशन या सूजन को कम करता है, कफ को पतला करके निकालता है।

कोरोना और अन्य वायरस, जो श्वास नली के माध्यम से शरीर मे प्रवेश करते हैं, उनका सामना इम्यून सेल्स से होता है। प्रवेश मार्ग की इम्युनिटी में किसी प्रकार की कमी की अवस्था में वायरस की संख्या में वृद्धि होती है और जटिलताएं बढ़ती हैं। इस प्रकार उपर्युक्त सुलभ, हानिरहित सातों वनौषधियों के गुणों को हम संक्षेप में ऐसे देख सकते हैं।

1. अमृता के तना का इस्तेमाल इम्युनिटी वर्धक के रूप में किया जाता है।

2. कालमेघ का पंचांग यरस रोधी एंवं इम्युनिटी वर्धक है।

3. वासक के पत्ते का उपयोग श्वासनली से जुड़ी समस्याओं के इलाज, इम्युनिटी वर्धक  एवं श्लेष्मा निस्सारक के रूप में किया जाता है।

4. नीम के पत्ते का उपयोग वायरस रोधी एवं इम्युनिटी वर्धक के रूप में होता है।

5. तुलसी के पत्ते में वायरस रोधी एवं इम्युनिटी वर्धक गुण होते हैं।

6. हल्दी में वायरस रोधी एवं इम्युनिटी वर्धक  गुण हैं।

7. पिप्पली का फल वायरस रोधी ,इम्युनिटी वर्धक  तथा योगवाही है।

 

 

 

चिकित्सक के पास या अस्पतालों में आने वाले रोगियों में एक बड़ी संख्या में उनकी होती है, जो बुखार की शिकायत लेकर आते हैं। इनमें दो-चार या दस दिनों से हल्के या तेज बुखार से पीड़ित रोगियों की संख्या ही अधिक होती है पर कुछ कई सप्ताह से बुखार की शिकायत बताते हैं। हालांकि बुखार के साथ-साथ अक्सर कम या अधिक अन्य तकलीफें जैसे खांसी, पेशाब की जलन, शरीर के किसी हिस्से में दर्द या शोजन जैसे अन्य लक्षण भी होते हैं। यदि ये शिकायतें अधिक परेशान नहीं कर रही होती हैं तो अच्छी तरह पूछताछ के बिना रोगी इनका जिक्र भी नहीं करते जबकि रोग के सटीक निदान और इलाज के लिए इन्हें जानना आवश्यक होता है।

मरीजों को लगता है कि बुखार उतर जाये तो सारी समस्या दूर हो जायेगी। वे चिकित्सक से अपेक्षा रखते हैं कि वे जल्द से जल्द ऐसा इलाज करें कि बुखार उतर आये। लोग अक्सर बुखार का असर कम होने को ही चिकित्सा का कारगर होना समझते हैं। बुखार होते ही बाजार में आसानी से उपलब्ध पेरासिटामोल, ब्रूफेन, नेमुस्लाईड जैसी अन्य दवाओं को स्वयं ही लेना भी काफी आम व्यवहार है। चूंकि आम आदमी बुखार के उतरने को ही चिकित्सा की सफलता मानता है इसलिए डाक्टर भी जल्द से जल्द बुखार उतारने की दवा दे देते हैं। ऊपर जिन दवाओं का उल्लेख मैंने किया है, उनके इस्तेमाल से बहुधा बुखार उतर भी जाता है, पर बुखार के प्रति इस प्रकार का नजरिया (दृष्टिकोण) अनेक बार घातक होता है क्योंकि बुखार स्वयं में एक रोग नहीं बल्कि शरीर में होने वाली असामान्य गतिविधि का संकेत, लक्षण या अलार्म है जो यह बताता है कि शरीर में कोई गड़बड़ चल रही है।

बुखार एक सहायक मित्र या वेलविशर की भूमिका भी निभाता है और रोग को ठीक करने में सहायक होता है, यह स्थापित वैज्ञानिक तथ्य अधिकांश आम लोगों के साथ साथ अनेक चिकित्सा कर्मियों (डाक्टर, नर्स तथा अन्य) के भी तत्काल गले नहीं उतरता है। अनेक चिकित्सक इस तथ्य से अवगत होते हुए भी अस्वास्थकर व्यावसायिक प्रतियोगिता, सरोकार की कमी, समयाभाव, लोभ और रोगी के अन्य चिकित्सक के पास चले जाने के भय जैसे कारणों से रोगी को बुखार के बारे में सही तथ्यों को समझाने और धैर्य रखने की सलाह के बजाय येन केन प्रकारेण बुखार उतारने को ही चिकित्सा का लक्ष्य बना लेते हैं।

सही वैज्ञानिक तथ्यों की जानकारी और समझ हमें घबराहट के साथ-साथ दवाओं के अनावश्यक प्रयोग से होने वाली हानियों तथा अनावश्यक खर्च से बचाने में सहायता करेगी। बुखार के प्रति सही समझ हमारे स्वास्थ्य को नुकसान और गंभीर खतरों से बचाने में सहायक होगी।

बुखार क्या है?

सामान्य स्वास्थ्य कि स्थिति में वयस्क मनुष्य के शरीर का औसतन तापक्रम 36.5-37.5 सेल्सियस या 97.7 – 99.5  फॉरेनहाइट के बीच होता है। तापक्रम को नापने के लिए थर्मामीटर का प्रयोग किया जाता है। थर्मामीटर को अक्सर मुंह में जीभ के नीचे या बगल कांख में 1-2 मिनट तक रख कर शरीर का तापक्रम नापा जाता है। कभी-अभी छोटे बच्चों में गुदा द्वार (पैखाने के रास्ते) में थर्मामीटर लगाया जाता है। मुंह का तापक्रम बगल के तापक्रम से लगभग एक डिग्री कम और गुदा का तापक्रम एक डिग्री अधिक होता है। आजकल रोगी को बगैर छुए तापक्रम नापने के लिए अन्य प्रकार के यंत्रों का भी व्यवहार किया जाता है। तापक्रम को एक निश्चित सीमा पर रखने के लिए मस्तिस्क के हाइपोथेलामस नामक स्थान में एक तापक्रम नियंत्रक केंद्र (थर्मो रेगुलेशन सेंटर) होता है, जो एक जटिल प्रक्रिया के माध्यम से शरीर के तापक्रम को एक निश्चित स्तर पर बनाये रखता है। बाहर वातावरण के तापक्रम के बढ़ने-घटने की अवस्था में भी शरीर का तापक्रम इसी निश्चित बिंदु पर बना रहता है। बाहर बर्फ पड़ने पर वातावरण का तापक्रम शून्य या इससे भी नीचे चला जाये या गर्मी में 50 से अधिक हो जाये, पर शरीर का तापक्रम तापक्रम इसी निश्चित बिंदु पर बना रहता है।

क्यों होता है बुखार ?

बुखार मूलतः शरीर में बाहरी शत्रुओं सूक्ष्म जीवाणुओं (वायरस, बैक्टीरिया, फंगस एंव प्रोटोजोआ) के प्रवेश या आंतरिक गडबडियों (रोगों) का अलार्म या खतरे की घंटी है। पर इन्फेक्शन के अतिरिक्त आतंरिक उत्तकों(टिश्यू) के टूट-फूट या क्षति, कैंसर, आर्थराइटिस, चोट लगाने, इम्यून सिस्टम की गड़बड़ियों जैसे अनेक अन्य रोगों में भी बुखार एक लक्षण के रूप में होता है। यह खतरे के विषय में सचेत करने के साथ-साथ अक्सर खतरों से निपटने में मदद के लिए विकसित एक जटिल जैव प्रक्रिया है। अनेक परिस्थितियों में बुखार अपने आप में अत्यंत हानिकारक या जानलेवा भी हो जाता है।

किन रोगों में होता है बुखार:

100 से भी अधिक रोगों में बुखार एक आम (कॉमन) लक्षण के रूप में दिखाई पड़ता है पर बेहतर समझ के लिए इन्हें हम दो वर्गों में बांट सकते हैं।

1.   सूक्ष्म जीवाणुओं के कारण होने वाले बुखार को संक्रामक बुखार

2.    अन्य अनेक प्रकार के रोगों में होने वाले गैर संक्रामक बुखार

संक्रामक बुखार:

वातावरण में मौजूद 400 से अधिक प्रकार के सूक्ष्म जीवाणु मनुष्य जाति में अल- अलग रोग के कारण हैं। लगभग 90 प्रतिशत बुखार किसी न किसी सूक्ष्म जीवाणु के संक्रमण (इन्फेक्शन) के कारण होते हैं।

सूक्ष्म जीवाणुओं के शरीर में प्रवेश करते ही इनका सामना शरीर की प्रतिरोधक क्षमता (इम्यून सिस्टम) के सैनिकों से होता है। ये सैनिक तत्काल विभिन प्रकार से बचाव कार्य में लग जाते हैं। जिस प्रकार युद्ध के मैदान में सीमा पर दुश्मन से लड़ने के साथ-साथ दुश्मन के आने की खबर मुख्यालय को दी जाती है जिससे मुख्यालय भी अपने स्तर पर कार्रवाई कर सके, ठीक इसी तरह संक्रामक जीवाणु के शरीर में आगमन की सूचना एक रसायन आईएल-1 के माध्यम से तापक्रम नियंत्रक केंद्र (थर्मो रेगुलेशन सेंटर) को दी जाती है। तापक्रम नियंत्रण केंद्र शरीर के तापक्रम को सामान्य से अधिक करने का प्रयास करता है। बढ़ा हुआ तापक्रम मुख्यतः दो प्रकार से मददगार होता है। पहला तो देखा गया है कि बढे हुए तापक्रम पर सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या वृद्धि नियंत्रित होती है तथा 40 डिग्री के तापक्रम पर इम्यून सिस्टम की कार्यक्षमता बेहतर होती है और वे बेहतर तरीके से जीवाणुओं को नियंत्रित करने या मारने में सक्षम होते हैं। इस प्रकार संक्रामक बुखारों में बढ़ा हुआ तापक्रम दो महत्वपूर्ण तरीकों से सहायक होता है। अब अनेक वैज्ञानिक अध्ययनों से यह पता चला है कि जिन रोगियों में बुखार की दवाओं के प्रयोग से तापक्रम को कम किया गया उनमें जीवाणुओं कि संख्या अधिक थी और रोग मुक्त होने में अधिक समय लगा और कुछ रोगियों में जटिलताएँ (complications) भी हुईं।

संक्रामक बुखारों में बुखार की प्रकृति या व्यवहार भी अलग अलग होता है। जैसे मलेरिया का बुखार कंपकंपी के साथ कुछ ही घंटों में काफी तेज हो जाता है और फिर अचानक पसीने के साथ बिल्कुल उतर कर सामान्य हो जाता है। टायफ़ायड का बुखार सुबह से धीरे धीरे चढ़ता है और शाम होते होते उच्चतम स्तर पर हो जाता है परन्तु पूरी तरह से सामान्य नहीं होता है। इसी प्रकार अनेक बुखारों में सहयोगी लक्षणों जैसे खांसी, पेसाब में जलन, जोड़ों में शोजन या दर्द जैसे लक्षणों से बुखार के कारण का ठीक- ठीक पता चलता है। परन्तु पिछले 3 दशकों से केवल बुखार को ही रोग मानकर इसे दवाओं के माध्यम से उतारने की प्रवृत्ति रोगियों के साथ साथ चिकित्सकों में बढ़ी है। बुखार के सटीक कारण जाने बगैर तत्काल बुखार उतरने की दवा लेने से बुखार के कारण का पता करना और भी कठिन हो जाता है। इन्हीं परिस्थितियों में अनावश्यक दवाओं का प्रयोग बढ़ जाता है। यह लगभग वैसा है जैसे घर में दुश्मन के आने वाले की सूचना देने वाले अलार्म का स्विच ही बंद कर दिया जाय। इतना ही नहीं तापक्रम कम करके दुश्मन से लड़ने वाले इम्युनिटी के सैनिकों का उत्साह ठंडा कर दिया जाये  या उनके हथियार छीन लिए जायें और फिर अंधेरे में ताबड़ तोड़ गोलीबारी करके दुश्मन को मारने का प्रयास किया जाये। इस सामान्य तर्क से तो  निश्चय ही अधिक नुकसान होगा और कुछ अध्ययनों से इस बात की पुष्टि भी हुई है।

यह प्रवृत्ति आजकल छोटे बच्चों के सामान्य सर्दी, खांसी, बुखार के इलाज में अधिक दिखाई पड़ती है।अब तो सामान्य नागरिक भी बच्चों के बुखार उतारने के लिए पैरासिटामोल या ब्रूफेन के सिरप घर में रखने और तापक्रम थोडा ही बढ़ने पर अक्सर व्यवहार करने लगे हैं। इससे तत्काल राहत तो मिल सकती है पर पूरी जानकारी और आवश्यक समझ और सावधानी के अभाव में हानि की आशंकाएं अधिक हैं।

कब दें बुखार उतरने की दवा?

बुखार की डिग्री से अधिक महत्वपूर्ण है बच्चे के स्वास्थ्य की वास्तविक हालात। यदि बच्चे का तापक्रम 101 या 102 तक भी है और वह कम ही सही पर कुछ खा पी रहा है (बुखार में खाने पीने की रुचि थोड़ा कम होना स्वाभाविक है ), मल मूत्र त्याग करता है, उसकी गतिविधियां लगभग सामान्य हैं, तो इन परिस्थितियों में बुखार उतारने की दवा जहां तक हो सके, नहीं देना ही बेहतर है। केवल तापक्रम को कम करने के उद्देश्य से बुखार की दवाओं के उपयोग को जर्मनी, अमेरिका, और इंग्लैंड जैसे अनेक विकसित देशो में अब विशेषज्ञों द्वारा प्रोत्साहित नहीं किया जाता है।

 

बगैर दवा के बुखार कम करने और बच्चे को आराम देने के उपाय:

·         हल्के गर्म पानी से बदन पोंछना

·         माथे पर पट्टी

·         हल्के पतले आराम दायक कपडे पहनाना

·         अधिक मोटे कम्बल में नहीं लपेटना – इससे तापक्रम बढ़ने की संभावना अधिक होती है।

·         बच्चा यदि खाना नहीं चाह रहा हो तो उसे खिलाने के लिए बहुत अधिक प्रयास करने के बदले पर्याप्त मात्रा में पानी, फलों का रस, सब्जियों का सूप तथा अन्य तरल पेय देना या उसकी पसंद की हल्की, आसानी से पचने वाली चीजें जैसे खिचड़ी, दलिया, साबूदाना, नरम चावल देना चाहिए।

3 माह से कम उम्र के बच्चे को 100 डिग्री से अधिक बुखार होने पर चिकित्सक को तत्काल दिखाना बेहतर होता है।

 

5 साल तक के बच्चे को कब ले जाएं तत्काल चिकित्सक के पास

·         बार बार उल्टी या पतला पैखाना

·         गर्दन का अकड़ना

·         तेज सरदर्द

·         असामान्य सुस्ती या अत्यधिक छटपटाहट

·         सांस कष्ट- सांस में आवाज या दम फूलना

·         पेट दर्द या पेट फूलना

·         मिर्गी जैसा दौरा या झटके

·         बेहोशी जैसे लक्षण

·         जगाने के प्रयास के बावजूद प्रतिक्रिया नहीं करना

·         निरंतर जोरों से रोना

·         शरीर पर किसी प्रकार के दाने निकलना

·         3 दिन से अधिक बुखार

·         खाना पीना बिलकुल बंद कर देना

 

5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में तेज बुखार के कारण झटके (फेब्राइल सीजर)- केवल 2-5 प्रतिशत बच्चों में तेज बुखार (103 से अधिक) में मिर्गी के झटके जैसा दौरा पड़ता है, जो देखने में अत्यंत घबरा देने वाला होता है, पर देखा गया है कि अक्सर इससे कोई बहुत अधिक स्थायी क्षति नहीं होती है। जरूरी नहीं कि इस प्रकार के डरा देने वाले दौरे बार बार पड़ें। पर ऐसे बच्चों को चिकित्सक के पास अवश्य ले जाना चाहिए।

 

गैर संक्रामक बुखार

आतंरिक उत्तकों(टिश्यू) के टूटफूट या क्षति, कैंसर, आर्थराइटिस, चोट लगने, इम्यून सिस्टम की गड़बड़ियों, कुछ दवाओं जैसे पेनिसिलिन,सल्फोनामाईड,बार्बिचुरेट,एलोपिरिनोल, फेनिटोयन इत्यादि के व्यवहार से भी बुखार हो सकता है।

बुखार का ठीक-ठीक कारण जाने बगैर बुखार उतारने वाली दवाओं के गैरजिम्मेवार प्रयोग से बुखार में तात्कालिक राहत तो मिलती है पर रोग भीतर ही भीतर बढ़कर गंभीर रूप ले लेता है। अनेक प्रकार के कैंसर में बुखार एक प्रारंभिक लक्षण के रूप में होता है और यह भी  देखा गया है कि अलग-अलग चिकित्सक महीनों तक बुखार उतारने की दवाएं देते रहते है और उसके बाद भली भांति जांच करने पर कैंसर का पता चलता है। हाल में 37 वर्ष की सरिता मेरे क्लिनिक में आयीं, जिन्हें पिछले 4 महीनों से हल्का बुखार रहता था। चार महीनो में राज्य के विभिन स्थानों पर बुखार की चिकित्सा, तरह तरह की एंटीबायोटिक्स, स्टेरायड, मलेरिया की दवाएं, बुखार उतरने की दवाओं से की गयी। बाद में पेट की सावधानी से जांच और पेट का अल्ट्रासाउंड करते ही लीवर में 6 इंच से भी बड़ी कैंसर की गांठ का पता चला। बुखार के कारणों को जानने की पर्याप्त कोशिश के अभाव में केवल बुखार की चिकित्सा अनुमान पर करने से इस प्रकार की घटनाएं बहुधा देखने में आती हैं।

कभी-कभी बुखार के कारण का सटीक पता करने के लिए एक्सरे, अनेक प्रकार के रक्त, मूत्र या अन्य परीक्षण आवश्यक हो सकते हैं। कुछ रोगियों में कुशल और अनुभवी चिकित्सक की जांच और हर प्रकार के परीक्षणों के बाद भी बुखार के सटीक कारण का पता नहीं चला पता है। इस प्रकार के बुखार को पायरेक्सिया आफ अननॉन ओरिजिन (पी.ओ.यू.) या हिन्दी में अज्ञात कारण वाला बुखार कहतें हैं। इस प्रकार के बुखार की चिकित्सा अत्यंत कठिन होती है और चिकित्सक को अनुमान से ही इलाज करना पड़ता है।

बुखार कब है शत्रु या खतरनाक:

किसी भी संक्रामक रोग में अत्यधिक तापक्रम बढ़ने और बुखार के साथ अन्य लक्षणों का संयोग जैसे मस्तिस्क का संक्रमण(मैनिन्जाइटिस), सेरेब्रल मलेरिया जानलेवा हो सकता है जिसमें अलग-अलग सघन चिकित्सा की आवश्यकता पड़ती है।

लम्बे समय तक या बार-बार होने वाले वाले गैर संक्रामक रोगों में भी अधिक तापक्रम से मेटाबोलिक रेट बढ़ जाती है और शरीर में प्रोटीन तथा अन्य पोषक तत्वों की कमी होने लगती है, ऑक्सीजन की आवश्यकता बढ़ जाती है, अनेक हानि कारक पदार्थ (टोक्सिन) जमा होने लगते हैं, वजन कम होने लगता है और रोगी का जीवन खतरे में पड़ जाता है। इन स्थितियों में रोग की चिकित्सा के साथ साथ तापक्रम को कम करने के उपाय करना चिकित्सा की प्राथमिकता हो जाती है।

 

आयुर्वेद में ज्वर और उसकी चिकित्सा:

आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान में विभिन्न कारणों से बुखार या ज्वर का विशेष और विस्तृत वर्णन किया गया है और अलग अलग प्रकार के ज्वरों के लक्षणों और उनकी चिकित्सा के लिए सैकड़ों प्रकार की दवाओं और उपायों को बताया गया है।

बुखार में उपयोगी वनौषधियों में गुडिच या अमृता को लगभग हरेक प्रकार के ज्वर में अलग-अलग  अन्य औषधियों जैसे कंटकारी, वासक, नागरमोथा, नीम, कुटकी, पिप्पली, कालमेघ , हरश्रृंगार, यष्टिमधु तथा अन्य अनेक वनौषधियों के साथ  व्यवहार का वर्णन है। मैंने इन्ही जड़ी जडियों से बनी दवाओं के प्रयोग पिछले 20 वर्षों में अनेक प्रकार के ज्वरों में सफलता से किया है और इन औषधियों को एलोपैथ दवाओं की तुलना में अधिक कारगर और पूर्णतया सुरक्षित पाया है।